मेरी माँ
एक दिन
माँ सपने में आई
कहने लगी, सुना है
तूने कविताएँ बनाईं ?
मुझे भी सुना वो कविताएँ
जो तूने सबको सुनाई
मैं अचकचाई
माँ की कहानी माँ को ही सुनाऊँ !
माँ तो राजा-रानी की कहानी
सुनाती थी
उसे एक आम औरत की कहानी कैसे सुनाऊँ ?
माँ इंतजार करती रही
जैसा जीवन में करती थी,
कभी खाना खाने के लिए
तो कभी देर से घर आने पर
घबराई सी देहरी पर बैठी
पिताजी की डांट से बचाने के लिए |
आँखें नम हुईं
आवाज भर्राई
अपने को नियंत्रित कर
उससे आँखें मिलाये बगैर
उसे कविता सुनाई |
एक औरत थी
औसत कद, सुंदर चेहरा
सुघड़ देह
बड़ी- बड़ी आँखें
घूँघट से बाहर झाँकतीं
सुबह घर को, दोपहर बच्चों को
रात पति को देती
हमेशा व्यस्त रहती
पति की प्रताड़ना सहती,
बच्चों को बड़ा करती
घर आये मेहमानों का स्वागत करती,
सत्कार करती
फिर भी कभी न थकती
पति और बच्चों की खातिर
जिसकी रात भी दिन ही रहती
सुघड हाथों से घडी गई रोटियां क्या,
सभी पकवान
रसोई घर की बढ़ाते शान
जो कम रुपयों में भी घर चला लेती
मुफ़लिसी में भी
सभी रिश्ते निभा लेती
शरीर की शान, आभूषण, रहित रहती
लज्जा को अपना आभूषण कहती
बुरे वक्त में
घर की इज्जत बचाती
शरीर से छोटी वो
अपने कद को हमेशा उँचा रखती,
बस देना ही जो अपना धर्म मानती
पति की सेवा, बच्चों
की परवरिश में
पूरा जीवन निकाल
एक दिन हो गई निढाल
जीवन की अंतिम सांस
बेटी की गोदी में निकाल
विदा कह गई इस जीवन को
शायद यह कहती-कहती
अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो ,
मैंने माँ की और देखा,
माँ का चेहरा सपाट था
बिना उन हाव-भावों के
जो राजा-रानी की कहानी
सुनाते वक्त उसके चेहरे पर होते थे,
वो धीमे से मुस्कुराई, फिर कहा...
सच ही लिखा है, औरत की तकदीर
जन्मों से यही है
फिर भी, एक कविता ऐसी लिख
जिसमें एक राजा हो एक रानी हो
दोनों की सुखद कहानी हो
सपने तो अच्छे ही बुननें चाहियें
शायद कभी सच हो जाएँ !
वो वापस चली गई यह कहकर
फिर आउंगी, लिख कर
रखना
राजा-रानी की कहानी
कभी तो सच होगी ?
जो मैनें अपनी बेटियों के लिए बुनी थी |